भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नव तन कनक-किरण फूटी है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नव तन कनक-किरण फूटी है।
दुर्जय भय-बाधा छूटी है।

प्रात धवल-कलि गात निरामय
मधु-मकरन्द-गन्ध विशदाशय,
सुमन-सुमन, वन-मन, अमरण-क्षय,
सिर पर स्वर्गाशिस टूटी है।

वन के तरु की कनक-बान की
वल्ली फैली तरुण-प्राण की,
निर्जल-तरु-उलझे वितान की
गत-युग की गाथा छूटी है।