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नव सुमंगल गीत गाएँ / अजय पाठक

रिश्मयों को आज फिर,
आकर अंधेरा छल न जाए,
और सपनों का सवेरा,
व्यर्थ् हो निकल न जाए।
हम अंधेरों का अमंगल,
दूर अंबर से हटाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।

आधियां मुखिरत हुई है,
वेदना के हाथ गहकर,
और होता है सबलतम,
वेग उनका साथ बहकर।
झिलमिलाती रिश्मयों की,
अस्मिता को फिर बचाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।

अब क्षितिज पर हम उगाएं,
स्वर्ण् से मंडित सवेरा,
और धरती पर बसाएं,
शांति का सुखमय बसेरा।
हम कलह को भूल कर सब,
नव-सुमंगल गीत गाएं,
एक दीपक तुम जलाओे,
एक दीपक हम जलाएं।