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नसीब-ए-इश्‍क़ मसर्रत कभी नहीं होती / 'मुशीर' झंझान्वी

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नसीब-ए-इश्‍क़ मसर्रत कभी नहीं होती
ये बज़्म वो है जहाँ रोशनी नहीं होती

जबीन-ए-इश्‍क़ के सजदे क़ुबूल होते हैं
मिजाज़-ए-हुस्न में जब बरहमी नहीं होती

समझ चुके हैं असीरी को हम पयाम-ए-अजल
के ज़िंदगी-ए-कफ़स ज़िंदगी नहीं होती

मेरे बग़ैर उन्हें कौन जान सकता है
वो यूँ गुज़रते हैं आवाज़ भी नहीं होती

तेरा सितम भी तो है एक पुर्सिश-ए-ख़ामोश
तेरी निगाह कभी अजनबी नहीं होती

बढ़े चलो यही वारफ़्तगी की मंज़िल है
रह-ए-तलब में कभी शाम ही नहीं होती

दिल एक आतिश-ए-ख़ामोश ही सही लेकिन
तुम्हारी याद में कोई कमी नहीं होती

मेरी नज़र में यक़ीनन वो नंग-ए-गुलशन है
अमीन-ए-राज़-ए-चमन जो कली नहीं होती

मिली है राह-ए-तलब में ‘मुशीर’ सिर्फ मुझे
वो ज़िंदगी जो कभी ज़िंदगी नहीं होती