भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी / सीमाब अकबराबादी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नसीम-ए-सुबह गुलशन में गुलों से खेलती होगी|
किसी की आख़िरी हिचकी किसी की दिल्लगी होगी|
[नसीम=हवा]

तुम्हें दानिस्ता महफ़िल में जो देखा हो तो मुजरिम हूँ,
नज़र आख़िर नज़र है बे-इरादा उठ गई होगी|
[दानिस्ता=जान बूझ कर/क्नोविन्ग्ल्य]

मज़ा आ जायेगा महशर में कुछ सुनने सुनाने का,
ज़ुबाँ होगी हमारी और कहानी आप की होगी|
[महशर=फैसले का दिन]

सर-ए-महफ़िल बता दूँगा सर-ए-महशर दिख दूँगा,
हमारे साथ तुम होगे ये दुनिया देखती होगी|
 
यही आलम रहा पर्दानशीनों का तो ज़ाहिर है,
ख़ुदाई आप से होगी न हम से बंदगी होगी|
[ज़ाहिर=प्रकट]

त'अज्जुब क्या लगी जो आग ऐ 'सीमाब' सीने में,
हज़ारों दिल मे अँगारे भरे थे लग गई होगी|