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नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है / 'वासिफ़' देहलवी
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नसीम-ए-सुब्ह यूँ ले कर तिरा पैग़ाम आती है
परी जैसे कोई हाथों में लेकर जाम आती है
वो मज़ंर भी कभी देखा है अहल-ए-कारवाँ तुुम ने
उमड़ कर जब किसी बिछड़े हुए पर शाम आती है
यहाँ अब ना-तवानी से क़दम भी उठ नहीं सकते
इधर महफ़िल से साक़ी की सला-ए-आम आती है
किसी का ख़ून-ए-दिल खिंच कर टपक जाता है आँखों से
किसी का आँख में खिंच कर मय-ए-गुल-फ़ाम आती है
मुक़द्दर का सितारा-गर न हो रख़्शंदा ऐ ‘वासिफ’
न हिम्मत साथ देती है न हिकमत काम आती है