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नहर नीं रैयां / मदन गोपाल लढ़ा

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कालै रात चाणचकै
अदीठ हुयगी नहर
कांई ठाह
जमीं में बडग़ी
का आभो गिटग्यो
म्हैं फिर-फिर सोधी
साव सूकी जमीं
जठै कोनी दीसी
लीक तकात।

म्हारी आंख्यां आडी
अंधारो पसरग्यो
काळजो बैठग्यो
छूटगी धूजणी।
सपनो तूट्यां पछै ई
धूजै हो म्हैं
आंख्यां बैवै ही-
गंगा-जमना।

तो सपनो है बो!
पण नहर नीं रैयां
सांच हुवतां
कित्तो'क बगत लागै?