भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नहर / मदन गोपाल लढा
Kavita Kosh से
नहर पहचानती है
अपनी हद
वह न तो नदी है
न ही समुद्र
सपना भी नहीं पालती।
नहर जानती है
माप-जोख की जिंदगानी
बारह हाथ चौड़ी
पाँच हाथ गहरी
सात रोजा बारी
और टेल का सूखापन
उसकी मान-मर्यादा है।
कमज़ोर घर की
भँवरी-कँवरी है नहर
बचपन में ही
हो जाती है सयानी
उम्र भर पचती है
हरियल पत्तों से
ढकने के लिए
उघाड़े धोरों को।
मूल राजस्थानी से अनुवाद : स्वयं कवि द्वारा