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नहाया है / हरीश भादानी

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मन रेत में नहाया है

आंच नीचे से
आग ऊपर से
                    वो धुआंए कभी
झलमलाती जगे
वो पिघलती रहे
बुदबुदाती बहे
                    इन तटों पर कभी
धार के बीच में
डूब-डूब तिर आया है
मन रेत में नहाया है

घास सपनों सी
बेल अपनों सी
                    सांस के सूत में
सात स्वर गूंथ कर
भैरवी में कभी
साध केदारा
                    गूंगी घाटी में
सूने धोरों पर
एक आसन बिछाया है
मन रेत में नहाया है

आंधियां कांख में
आसमां आंख में
                    धूप की पगरखी
ताम्बई अंगरखी
होठ आखर रचे
शोर जैसा मचे
                    देख हिरनी लजी
साथ चलने सजी
इस दूर तक निभाया है

मन रेत में नहाया है