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नहिं जानत खेल खेलाड़ी बने मन आपन हार गये अब सेते।
बसते नहिं मानसरोवर में बसते चली अंति कहीं अब चेते।
बसते तब पत्थर के बन के पग भूलिहु प्रेम के पंथ न देते।
वह प्रीति सराहिये मीत 'रमा' पग कारट के संग हमे कर लेते॥