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नहीं, अब कुछ / ओमप्रकाश चतुर्वेदी 'पराग'

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नहीं, अब कुछ नहीं है जिंद़गी में

जियें तो क्यों जियें हम बेबसी में


बहुत झेली ज़लालत सिर झुकाकर

न अब सिजदा करेंगे बन्दगी में


ये मौसम का है कैसा दोगलापन

घुली देखी अमावस चाँदनी में


वो जो दो चार साये थे चमन में

घिरे हैं धूप की आवारगी में


मुखौटों में छुपे हैं सारे चेहरे

नहीं अब भेद कुछ नेकी-बदी में


हमारे साथ थे जो सुख-सदन में

कहाँ हैं लोग वे इस त्रासदी में


चलो उस पार को भी देख ही लें

पराग इस पार सब डूबा नदी में