भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नहीं, हरगिज़ नहीं / मदन मोहन दानिश
Kavita Kosh से
मेरे आबाद लम्हों में
मेरी वीरानियों में भी
जो कोई साथ होता है
तो वो बस एक तू ही है
हज़ारों कोशिशें की
तुझपे कोई नज़्म कह डालूँ
कहानी कोई लिक्खूँ
या कि कोई गीत ही रच दूँ
मगर एहसास को तेरे
कोई एक रूप दे देना
मगर विस्तार को तेरे
किसी एक हद में ले आना
नहीं, हरगिज़ नहीं है मेरे बस में
मेरे बस में ...माँ !