नहीं आ रही कविता (दो) / सुमन पोखरेल
इस वक्त कविता नहीं आ रही है
लेकिन मुझे कविता ही लिखने का मन हुआ ।
यहाँ संसार को ख़ुद में समेट कर सो रही किताबें और पत्रिकाएँ हैं,
मुझे ही पहरा देकर खडी रह रही दीवारें और खिडकियाँ हैं
मुझ सा ही पिघलने के लिए तैयार
चिठ्ठीयाँ और
किसी को याद कर के टकटकी लगा रहे जैसी दिखनेवाले तस्वीरें हैं ।
इस वक्त यहाँ नामौजूद चीजों के अलावा सब कुछ हैं ।
लेकिन उन को बाधा डालने का मन नहीं हुआ ।
मुझे मोमबत्ती या रेडियो लिखने का मन नहीं हुआ,
टेबुल, कलम या कागज लिखने का मन नहीं हुआ
कविता लिखने का मन हुआ है।
धरती का इस कतला में
पढ्ने का फुर्सत नहीं गिट्टी फोड़ना छोडकर,
सोचने का हौसला नहीं, भूख को बिछाकर,
सुमधुर बोलने की जरुरत नहीं, राजनीति को उतारकर,
जीने की फुर्सत नहीं, जीवनको घसीटना छोड़कर ।
इस अन्योल में,
गिट्टीयाँ फोड़ते फोड़ते ख़ुद टूटे हुए जीवनों की कहानियाँ लिखी जा सकती है,
आजीवन नंगे ही गुज़ार चले हुए वक्तों का निबन्ध लिखा जा सकता है,
दिन भर जीवन को दूंढ़ के न मिलने पर
रात के तरफ लौटते हुए थकित शामों पे उपन्यास लिखा जा सकता है,
लेकिन
सौन्दर्य से सजाई हुई कविता के पैदा होने का आसार नहीं दिखाई देता ।
अविवेक की हंडिया से सर ढकने से
नहीं रोका जा सकता अनियन्त्रित बहा हुआ अव्यवस्था की पागल बाढ को ।
निर्लज्जता और मूर्खता को चबा लेना जैसा आसान नहीं है
टूटे हुए समय के टुकड़े को चबाना ।
ऐसे में
फिर एक विदीर्ण कालखण्ड का प्रलाप लिखा जा सकता है, शायद
उल्लास की मिठास से भिगी हुई कविता किसी भी हाल में नहीं आ रही ।
मुझे,
जीवनमय उमंगों के धुन पे नाच रहे युग की कविता लिखने का मन है ।
सृष्टि के सारे सौन्दर्य एक एक कर के पलायन हो रहे
इस धरती पे
इस वक्त नहीं आ रही है मेरे पास कोई कविता ।
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(नेपाली से कवि स्वयं द्वारा अनूदित)