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नहीं एक भी सद्‌‌गुण मुझमें / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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नहीं एक भी सद्‌‌गुण मुझमें, नहीं प्रेम का किंचित्‌‌ लेश।
भरा हृदय अगणित दोषों से, रस, विरहित, कलुषित सविशेष॥
लेती रही सदा सुख तुमसे मैं नित नव-नव अतुल अपार।
दे न सकी मैं कभी तुम्हें सुख-कण क्षणभर, हे परमोदार!
रोती रही सदा इस दुखसे, रोती नित्य रहूँगी, श्याम!
कभी देख तव मलिन चन्द्र-मुख बरबस लूँगी आँसू थाम॥
सुखी देखना तुम्हें चाहती, नित्य प्रफ्फुल्लित मुख सुख-सार।
इसीलिये दुख से रोती भी, करती मैं सब सुख स्वीकार॥