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नहीं जरूरत पड़ी / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'
Kavita Kosh से
नहीं जरूरत पड़ी
बंधु रे
हमें कहारों की
मीत हमारे प्राण
गीत के तन में
रमते हैं
पथ में मिलत
गीत जहाँ
पग अपने थमते हैं
नहीं जरूरत
हमने समझी
श्रीफल, हारों की
हमें स्वयं के
कीर्तिकरण की
बिल्कुल चाह नहीं
थोथे दम्भ
छपास मंच की
पकड़ी राह नहीं
नहीं जरूरत
पड़ी कभी रे
कोरे नारों की
हमें हमारी
निष्ठा ही
परिभाषित करती है
कवि को तो
बस कविता ही
प्रामाणिक करती है
नहीं जरूरत
हमें बंधु रे
पर उपकारों की