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नहीं जहाज़ तो फिर बादबान किसके लिए / ज्ञान प्रकाश विवेक

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नहीं जहाज़ तो फिर बादबान किसके लिए
मैं ज़िन्दगी की लिखूँ दास्तान किसके लिए

मैम पूछता रहा हर एक बन्द खिड़की से
खड़ा हुआ है ये ख़ाली मकान किसके लिए

ग़रीब लोग इसे ओढ़ते -बिछाते हैं
त ये न पूछ कि है आसमान किसके लिए

हर एक शख़्स मेरा दोस्त है यहाँ लोगो
मैम सोचता हूँ कि खोलूँ दुकान किसके लिए

ये राज़ जाके बताऊँगा मैं परिन्दों को
बना रहा है वो तीरो-कमान किसके लिए

ऐ चश्मदीद गवाह, बस यही बता मुझको
बदल रहा है तू अपना बयान किसके लिए

बड़ी सरलता से पूछा है एक बच्चे ने
अगर ये शहर है तो फिर मचान किसके लिए!