भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं जाओ / प्रदीपशुक्ल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं जाओ अभी तुमसे
ज़रा कुछ बात करनी है

थके सूरज को जाने दो
खड़ी है साँझ सिरहाने
खिलेगी रात रानी बस
अभी आँगन को महकाने
चढ़ा गोधूलि की चादर
अभी सो जाएँगे पत्ते
ललाया ताल का चेहरा
लगा बेबात शरमाने

अभी जाते हुए सूरज की
ये मुस्कान झरनी है
नहीं जाओ अभी तुमसे
ज़रा कुछ बात करनी है

बदल कर साँझ अब कपड़े
ज़रा-सा गुनगुनाएगी
झुके आकाश के डर से
लजा कर भाग जाएगी
अभी ये लौटते पंछी
सुनाएँगे कहानी फिर
अभी होगी दीया बाती
तभी तो रात आएगी

ज़रा ठहरो अभी सपनों
से तेरी आँख भरनी है
नहीं जाओ अभी तुमसे
ज़रा कुछ बात करनी है

नखत झूलेंगे बस आकर
अभी अम्बर अटारी में
दिखेगा चाँद का चेहरा
अभी सोया खुमारी में
अभी बैठो ज़रा, फिर चाँदनी
मिलकर निहारेंगे
विदा की बात मत करना
अभी मिलने की बारी में

रुको भिनसार की किरनें
तुम्हारे हाथ धरनी हैं
नहीं जाओ अभी तुमसे
ज़रा कुछ बात करनी है