Last modified on 26 मई 2014, at 10:13

नहीं पहचान पा रहा है कोई / पुष्पिता

आँखों में बैठी-बैठी
दृष्टि की उँगलियाँ
छूती हैं यूरोप की जादुई दुनिया
शामिल है जिसमें आदमी
                      औरत
                      और उनका तथाकथित प्रेम भी

दृष्टि-उँगलियाँ रहती हैं
आँखों की मुट्ठियों के साँचे भीतर
बहुत चुपचाप

वे कुछ नहीं
पकड़ना-छूना चाहतीं

मन
संगमरमर की तरह
चिकनाकर पथरा गया है
 नहीं पकड़ पाता कोई मन
खेल खेलने के नाम पर भी

मुस्कराना
ओठों का व्यायाम भर
ह्रदय की मुस्कराहट नहीं

आँसू, बहने के बाद नहीं सूखते
सूखे आँसू ही बहते हैं अब
गीला दुःख भीतर ही भीतर
गलाता रहता है चुपचाप सबकुछ
चेहरे की मुस्कराहट
आधुनिक सभ्यता की
प्लास्टिक सर्जरी की तरह
भीतर का कुछ भी
नहीं आने देती है बाहर

देह भर बची है सिर्फ
मानव पहचान की
खुद से खुद को
नहीं पहचान पा रहा कोई

लोग पहचानते हैं सिर्फ
डॉलर, यूरो और उसकी
निकटवर्ती दुनिया
किसी भी संबंध से पहले
और
किसी भी संबंध के बाद।