नहीं बता पाया तुम्हारा धर्म / संजय तिवारी
सृष्टि का आभार
सृजन का आधार
तुम्हारी नेह
तुम्हारा प्यार
वंचित न थी
पर हो गयी
एक चिड़िया
इसी आँगन में रो गयी
यह तुम्हारा राजमहल
यह तुम्हारी देहरी
यह तुम्हारा आसन
मैं तुम्हारी मेहरी
कभी भी तुम्हें वह याद आयी?
जो केवल तुम्ही में थी समायी
कितना छोटा है
तुम्हारा धम्म का संसार
यह ज्ञान का कारोबार
ज्ञान तो कृष्ण ने भी दिया था
पर बदले में
कुछ भी तो नहीं लियाथा
कृष्ण के ज्ञान के बाद
हुई थी महा क्रांति
छा गयी थी शान्ति
तुम्हारे ज्ञान ने तो
कही का नहीं छोड़ा है
सनातन को ही खंडो में तोडा है
अब तक टूट ही तो रहा है
शांति का वह दीप रो रहा है
खंड खंड पंथो से
कुटुंब नहीं बन सकती वसुधा
सभी को कैसे मिले
सुखी बनाने वाली सुधा
तुम्हारे जीते जी टूटी सनातन परंपरा
तुम्हारे नए पंथ की नयी त्वरा
तुम्हारे चैत्य
तुम्हारे बिहार
तुम बना रहे थे नया संसार
पर यह क्या बन गया?
जो नम्र था वही तन गया
संस्कृति और सभ्यता का मर्म
नहीं बता पाया तुम्हारा धर्म
गौतम
बहुत आहत हूँ
इसलिए तुम्हें ही टटोल रही हूँ
मैं यशोधरा बोल रही हूँ।