भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं मुझ को फ़िक्र-ए-साहिल ग़म-ए-नाख़ुदा नहीं है / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नहीं मुझको फ़िक्र-ए-साहिल, ग़म-ए-नाख़ुदा नहीं है
लगूँ इश्क़ में किनारे, ये मिरी दुआ नहीं है!

जो रहीन-ए-ग़म नहीं है, वो वफ़ा वफ़ा नहीं है
तू है बे-नियाज़ जिस से वो अदा अदा नहीं है!

जो कहूँ तो क्या कहूँ मैं, जो करूँ तो क्या करूँ मैं?
मैं कहाँ हूँ और क्या हूँ, मुझे ख़ुद पता नहीं है

यही इब्तिदा-ए-ग़म है, यही इन्तिहा-ए-ग़म है
मिरे दिल में तू ही तू है, कोई दूसरा नहीं है!

न यूँ बैठ क़ल्ब-ए-मुज़्तर, ज़रा कुछ तो कह ले,सुन ले
अभी कुछ कहा नहीं है, अभी कुछ सुना नहीं है!

तिरी याद ज़िन्दगी है, तिरी याद बन्दगी है
तिरा आसरा नहीं तो, कोई आसरा नहीं है!

न ही कोई आरज़ू है, न ही कोई जुस्तजू है
मिरा अर्ज़-ए-ग़म के आगे, कोई मुद्दआ नहीं है!

मुझे हाल-ए-दिल पे या-रब!जो है इस क़दर तअस्सुफ़
नया मुझ पे हादिसा तो कोई यह हुआ नहीं है!

ग़म-ए-आशिक़ी से डर के कहाँ जा रहे हो "सरवर"?
अभी क्या हुआ है प्यारे! अभी कुछ हुआ नहीं है