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नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें / विनय मिश्र
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नहीं यूँ ही हवा बेकल है मुझमें ।
है कोई बात जो हलचल है मुझमें ।
सुनाई दे रही है चीख़ कोई,
ये किसकी ज़िन्दगी घायल है मुझमें ।
बहुत देखा बहुत कुछ देखना है,
अभी मीलों हरा जंगल है मुझमें ।
लगाये साज़िशों के पेड़ किसने,
फला जो नफ़रतों का फल है मुझमें ।
बुझाई प्यास की भी प्यास जिसने,
अभी उस ज़िंदगी का जल है मुझमें ।
मेरी हर साँस है तेरी बदौलत,
तू ही तो ऐ हवा पागल है मुझमें ।
सवालों में लगी हैं इतनी गाँठें,
कहूँ कैसे कि कोई हल है मुझमें ।
दिनोंदिन और धँसती है ग़रीबी,
यूँ बढ़ता कर्ज़ का दलदल है मुझमें ।
हवाओं में बिखरता जा रहा हूँ,
कहूँ कैसे सुरक्षित कल है मुझमें ।