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नहीं समझोगे दर्द / अनिरुद्ध प्रसाद विमल

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हे प्रभो !
मेरी मौन पुकार
मेरे मन के एक कोने से उठकर
बाहर जाना चाहती है
मगर लहू से सने जबड़े की तरह
ये जेल की दीवारें
हर बार इसे रोक लेती हैं
रोक लेती हैं इसे
बाहर जाने नहीं देती
और प्रभो !
तस्वीर में तुम्हें
तुम्हारी प्रिया के साथ पा कर
मेरा विरही मन
और भी व्याकुल हो जाता है
यह तो तुम भी
सोच सकते हो प्रभो
कि जब तुम्हारा मन
जेल में जन्म से बाद ही
नहीं लगा
तब मेरे बेल होने की प्रतीक्षा में
द्वार पर अकेली खड़ी
मीरा के बिना
कैसे लग सकता है ?