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नहीं है सांझ अपनी औ सवेरा / कुलवंत सिंह
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नहीं है सांझ अपनी औ सवेरा।
न आया रास मुझको शहर तेरा॥
वहां पूरा मुहल्ला घर था अपना,
यहां इक रूम का कोना है मेरा।
वहाँ कस्बे में था आंगन लगा घर,
यहाँ सूरज न ही है चांद मेरा।
यहाँ बसते हैं लगता चील कौवे,
हमेशा नोंचते हैं मांस मेरा।
हुई है खत्म लगता जात आदम,
बना हर घर यहाँ भूतों का डेरा।
जिधर देखो उधर हैवान दिखते,
कहाँ खोजूँ मैं इंसां का बसेरा।
गुजारा हो नहीं सकता यहां पर,
मुझे लगता नही यह शहर मेरा।