भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नहीं होना हमें अमर अविजित / वंदना गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

क्या फर्क पड़ता है नाम से
अक्सर कहा गया
और हमने मान लिया
नाम कोई हो
पहचान करा देता है
तुम्हारे धर्म की
और हो जाते हो तुम निष्कासित
अभिव्यक्ति की आज़ादी
महज स्लोगन भर है
नहीं जान पाए तुम
और गँवा बैठे जान
आसान है खोल में दुबके रहना
मुश्किल है हलक में ऊंगली डाल सच को कहना
क्या नाम अविजित होने से संभव था तुम्हारा अविजित रहना
शायद इसी सच से तुम अनजान रहे
सुनो
तुमसे जाने कितने आये और चले गए
धर्म की चिता पर जिंदा जलना नियति है
जानते हो क्यों?
एक नपुंसक समाज में जन्मे थे
जहाँ इंसानियत से ऊपर मजहब हुआ करता है
कह तो सकते हैं
तुम्हारी आहुति निरर्थक नहीं जाएगी
विचार के रूप में जिंदा रहोगे हमेशा
आसान है इस तरह कहकर पल्ला छुड़ाना
या खुद को खैर ख्वाह सिद्ध करना
मगर
मुश्किल है तुम्हारी जलाई मशाल को पकड़ क्रांति का बीज बोना
अभी एक डरे सहमे समाज का हिस्सा हूँ मैं
कठमुल्लाओं की देहरी पर सजदा करने तक ही है अभी मेरी पहुँच
आम इंसान हूँ न
और एक आम इंसान की पहुँच सिर्फ देहरियों तक ही हुआ करती है

उम्मीद का कोई धागा मत बांधना हमसे
हम कागज के बने वो पुतले हैं
जो पहली बारिश में ही गल जाते हैं
सबकी अपनी अपनी लडाइयां हैं
तुम अपनी लड़ाई लड़ चुके
और हम चाहते हैं बिना लडे ही अविजित रहना
अभिव्यक्ति की आज़ादी का अंतिम छोर है मौत
और अभी जीना है हमें अपनी नपुंसकता के साथ
जाओ तुम अमर रहो और हमें हमारे हरम में दफ़न रहने दो
नहीं होना हमें अमर अविजित