नहीं हो कर भी / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
सुना है जब से कि तुम आ रही हो आज
खुशी के मारे मर-सा गया है कमरा
खिला-खिला-सा लगता है ‘बेड’ का चेहरा
और तकिए की आँखों में अजब रौनक है
मैंने देखा कि कल तक उदास थी कुर्सी
कुछ भी रखूँ टेबल पे, गिरा देती थी
पाँव दोनों के नहीं हैं ज़मीं पर आज
मेरे कमरे में किताबों का एक जंगल है
ये क्या हुआ कि शाखों पे फूल आए हैं
मचल रहे हैं अभी खुशरंग पत्ते भी
हवा को देखो यूँ चूम-चूम जाती है
बहुत बोलता था कल तक जो टीवी मेरा
किस तरह कोने में ख़ामोश-सा बैठा है
शर्म से लाल हो रहे हैं रिमोट के गाल
दर-ओ-दीवार की हालत तो पूछना ही मत
मुस्कुराते भी हैं तो बत्तीसी नज़र आती है
चाँद रहता था लेटा हुआ जिस ख़िड़की पर
आज उसने भी बंद कर लिया खुद को
जैसे आओ तो तेरा लम्स न बाहर निकले
वक़्त का टुकड़ा कमरे में पड़ा रह जाए
सहेज कर उसको रखूँगा अपने जीते जी
कि बाद मेरे भी लम्हा वो चमक रखेगा
जब भी आएगा कोई बदन किसी बाहों में
हमारे प्यार की ज़िंदा मिसाल देगा वो
और हम होंगे उस वक़्त नहीं हो कर भी
हवा में जैसे रहती है खुशबू खो कर भी