नही लिख पाई नीले रंग की गाथा / काजल भलोटिया
जबकि ये जन्म के साथ ही मुझसे जुड़ गया
नीले से मेरा प्रथम परिचय तब हुआ
जब जन्म लेते ही गर्भनाल से अलग कर
मेरी नाभि पर लगाई गई नीली दवाई
ऐसा मुझे माँ ने बताया
ये नीला ऐसा चढ़ा मुझपर
की कभी अलग ही नहीं हो पाया
बचपन से बड़े होने की अवधि के बीच
हजारों घटनाओं में नीला
कभी हल्का तो कभी गाढ़ा होता रहा
और इसका प्रारूप बदलता गया
गाढ़े पन की सीमा की अति तब तय हुई
जब वक़्त ने अपनी हथेलियों से
मेरी पीठ पर जोरदार थाप लगाई
जिसके हाथों की नीली छाप
आजतक हल्की नहीं पड़ी
उदास मन के नील लिये कोशिश की मैंने
नीली स्याही से लिखूँ मन का नीलापन
बिखेर दूँ सब सादा झक्क पन्नों पर
मगर स्याही ने इंकार कर दिया
बुझे मन से मैंने
नीले आसमान की तरफ़ देखा
फिर नीले समंदर पर नज़र गई
भोले का धयान किया
वो भी नीलकंठ ही दिखा
माधव को सोचा
नीलवरण धारे उनकी छवि दिखी
तब बड़ा प्यार आया मुझे नीलेपन की मासूमियत पर
हर जगह तो यही बिखरा पड़ा है
धीरे धीरे यही तो भर रहा मुझमें
और लचीला कर रहा मेरे मन का आसमान!