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नाई बहार / 1 / भिखारी ठाकुर

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प्रसंग:

कृषि प्रधान ग्रामीणा समाज में कर्मकाण्ड की रुढ़ियाँ अतिशय उत्कर्ष पर थीं। कर्म के अनुसार विकसित वर्ण एवं जाति-व्यवस्था में 'नाऊ' या 'हजाम' एक ऐसी जाति है जो न केवल सभी कर्मकाण्डों में आचार्य-पुरोहित ब्राह्मणों की सहयोगी जाति है, बल्कि पूरे समाज का संस्कार तथा विभिन्न सेवा कार्य कर उसे सुंदर तथा पाक-साफ करता है।

-'शुचि वेद, पुराण, कथा इतिहास के साइनबोड लखावत है।'

फिर भी नाऊ जाति को उसकी वास्तविक मजदूरी या दान-दक्षिणा में हिस्सा नहीं मिलता। उसे बहुत विकट परिस्थिति में अपना काम करना पड़ता है।

इन स्थितियों से क्षुब्ध नाऊ जाति अपनी पीड़ा को लोककवि के द्वारा अभिव्यक्त करती है। स्वयं भिखारी ठाकुर चूँकि इसी जाति से आते हैं, इसलिए इस स्थिति का उन्हें पूर्ण एवं विशद् अनुभव है।

दोहा

श्री गणेश का चरनन में, नावत बानी सिर।
कहे 'भिखारी' नाउ वंश पर, बहुत परल बा भिर॥

चौपाई

विप्र चरण के धूरि पाउँ। कहे 'भिखारी' शीश चढ़ाउँ॥
सुनी गरज अरजी के निके. नाउवंश समवत् सबहिके॥
साल तेरह सौ चालीस आहीं। नाउवंश कलपत जग मांही॥
आश्विन शुक्ल अष्ठ उजियारी। सुक्र दिवस मँह कहत पुकारी॥
एह गरीब के मुखवा बंद। कइलन कवन कसूर सुखकंद॥
ना कुछ मुँह पर बोलत बानी। डर से सुनहु सकल सज्ञानी॥
क्षत्री-वैश्य-शुद्र सुनी लीजै। सब मिली कुछ उपाय कर दीजै॥
सुनो पंचो कहल हमार। नरक से नाउ कइलन उधार॥
जमते सउरी में सुध कइलन। नव मास के पातक खइलन॥
चारे आना में भागल छून। खेदलन खुद नाउ के पूत॥
दू आना बबुई का भइले। तुरते छूत लुप्त हो गइले॥
जन्म-कुण्डली के बनवाई. बाइस रुपया भइल मोलाई॥
कतिनो खरचा भइल माल। तबहूँ खेद के कइलस काल॥
अइसन बात उभरलीं काहे। जर से देखीं विप्र का दाहे॥
बेसी ब्राह्मण लालच कइलन। ममिला सब गड़बड़ हो गइलन॥
केहू कहत बा शादी-श्राद्ध। अपने करबऽ के लाई बाघ॥
हमनी के केहू ब्राह्मण ठगी ना। घर भर मिली के पूजब भगीना॥
केहू कहत बा खोलऽ बेद। पिण्डा के देखलावऽ भेद॥
खिसी झगड़ा होखे लागल। ब्राह्मण के जजमान त्यागल॥
करे के लालच चाहीं कइसन। नून दाल में परेला जइसन॥
एही वजह से बात कठोर। कहे 'भिखारी' दोऊ कर जोर॥