नाई बहार / 5 / भिखारी ठाकुर
प्रसंग:
सामंती व्यवस्था में नाई को एक पवन मानकर दो फसलों क आगमन पर एक बंधी-बँधाई मात्रा में अन्न मिलता था और उसके एवज में नाई को सालों भर जजमान के पूरे परिवार की सेवा करनी पड़ती थी। श्रम का मूल्य नहीं मिलने तथा कम के लिए पर्याप्त सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलने का दर्द बहुत रहता था।
चौपाई
रेल के रस्ता बाटे भाई. खरचा मांगे में सकुचाई॥
चिठी उठा के चललन चाल। देखीं उठावल गोड़ के फाल॥
छव महिना भइल उधार। अन्न से भरल बाटे उधार॥
इहे देख के सबूर करिलऽ। जजमनिका के सब दुःख हरि लऽ॥
गेहूं-तेलहन-रेड़ी-तोरी। ई ना मिली माल ह कोरी॥
मटर-बूट-खेसारी-जव। जेकर दर पसेरी छव॥
कोदो-मसुरिया-रहर भाई. मिलत बा सहता अन्न कमाई॥
ओहू में हलका जवन होई. खुशी से मिलत बाटे सोई॥
एहा में बाबू के भइलीं अधीन। कंगही-कैची-बुरुज मशीन॥
लेजा जवन होय सहता अन्न। एही में बँगला-काट फैशन॥
अब हम कवन करीं उपाई. कलप के कह 'भिखारी' नाई॥
बाबू का डर से राते-दिन। सूतल बाड़न स्वान के नीन॥
नेवतवनी मिलल दू पाई. सब कुछ दस आना हो जाई॥
केहू एक पाई में ठगलऽ। जेकरा नइखे कुछुओ खगल॥
तेह में लागल छव गो दिन। कहे 'भिखारी' सुनी फिन॥