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नाकाफ़ी लगती है हर ज़बान / उमाकांत मालवीय

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नाकाफ़ी लगती है हर ज़बान ।
कोई अक्षर
कोई शब्द किसी भाषा का
पूरा-पूरा कैसे व्यक्त करे
क्या कुछ कहता मन का बियाबान ?

एक रहा आने की, जाने की
घिसे-पिटे पंगु कुछ मुहावरे ।
दीमक की चाटी कुछ शक्लें हैं
बदहवास कुछ, कुछ-कुछ बावरे ।
कोई कितना ज़हर पिए कहो
नीला पड़ गया टँगा आसमान ।

बाबा आदम से गुम हुए सभी
तोड़ते ज़मीन कुछ तलाशते ।
रूढ़ हो गईं सारी मुद्राएँ
अर्थ जरा-जर्जर-से खाँसते ।
कितना यांत्रिक ! आदत-सा लगता
डूब रहा सूरज या हो विहान ।

चाहे जितना कह दो फिर भी तो
रह जाता है कितना अनकहा ।
कितनी औपचारिक हैं सिसकियाँ
कितना रस्मी लगता कहकहा ।
अगुआता घर-घर भुतहा भविष्य
और अप्रस्तुत लगता वर्तमान ।