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नागपुर के रस्ते / वीरेन डंगवाल

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1

गाडी खडी थी

चल रहा था प्लेटफार्म

गनगनाता बसंत कहीं पास ही मे था शायद

उसकी दुहाई देती एक श्यामला हरी धोती में

कटि से झूम कर टिकाए बिक्री से बच रहे संतरों का टोकरा

पैसे गिनती सखियों से उल्लसित बतकही भी करती

वह शकुंतला

चलती चली जाती थी खडे खडे

चलते हुए प्लेटफार्म पर

तकती पल भर

खिड़की पर बैठे मुझको


2

सुबह कोई गाड़ी हो तो बहुत अच्छा

रात कोई गाड़ी हो तो बहुत अच्छा

चांद कोई गाड़ी हो तो सबसे अच्छा


सुबह कोई गाड़ी होती तो मैं शाम तक पहुंच जाता

रात कोई गाड़ी होती तो मैं सुबह तक पहुंच जाता


चांद कोई गाड़ी होती तो मैं उसकी खिड़की पर ठंडे ठंडे

बैठा देखता अपनी प्यारी पृथ्वी को

कहीं न कहीं तो पहुंच ही जाता।