नागरिक / हरे प्रकाश उपाध्याय
उसके घर जब आकर रहने लगे
दु:ख अभाव और उनकी सगी कलह
तो वह भागकर कमाने मुम्बई चला गया
वहाँ से भगाया गया
धरती पुत्रों ने भगाया उसे
उसके बाद वह सूरत गया, बंगाल गया
नेपाल गया
कई-कई शहरों में कई-कई बार गया
कहीं दोस्तों ने ही ठग लिया
कहीं उसके मालिकों ने मार लिया मेहनताना
और भगा दिया
कहीं बीमारी और मौत से लड़ते-लड़ते वह भागा
मारा-मारा फिरता रहा
एक अदद काम की तलाश में
पूरी जवानी की यही रही कहानी
एक दिन कबूतरबाज़ों के हत्थे चढ़ा
तो अपने हिस्से में मिली एक कोठरी भर की ज़मीन बेचकर
चला गया दूर अरब के देश में
वहाँ भी उसका मालिक
उठाता है उसकी मज़बूरी का फ़ायदा
जब न तब बिना बात के काट लेता है पैसे
बोनस में अपमान का करता है भुगतान
अब वह जाए तो कहाँ जाए
अब वह लौटे तो किसके पास लौटे
किस ठिकाने पर लौटे
निगोड़ा घर भी बिक गया
जो होता तो लौटने का एक बहाना तो होता
अब वह उस देश में कैसे लौटे
जहाँ बिक गई उसकी धरती
बिक गया आसमान...
कहने को मगर
वह अब भी एक देश का नागरिक है...