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नागहां ऐसा भी क्या हो गया बेज़ा मुझ से / रमेश तन्हा

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नागहां ऐसा भी क्या हो गया बेज़ा मुझ से
शहर का शहूर ही फिरता है खफ़ा सा मुझ से।

कब समझता है मिरे कर्ब को आइना भी
कब बताता है कि है क्या मिरा रिश्ता मुझ से।

अब तो साये से भी मेरे है सरासर बेज़ार
कर चुका, कतअ-तअल्लुक वो कभी का मुझ से।

उसके पत्थर का जो चाहूँ, तो दूँ पत्थर से जवाब
मेरी मुश्किल कि यही तो नहीं होता मुझ से।

उस ने नाहक़ ही मुझर शहर में बदनाम किया
उसे शिकवा था अगर आ के तो कहता मुझ से।

राज़दारी का तकल्लुफ तो निभाया होता
कुछ भी कह लेता मगर यूँ तो न करता मुझ से।

पहले कब धूप ने यूँ साथ मिरा छोड़ा था
पहले कब यूँ था गुरेज़ा मिरा साया मुझ से।

मैं, कि हालात की तहरीर को पढ़ ही न सका
किस क़दर करता रहा वक़्त तक़ाज़ा मुझ से।

कैसे बतलाऊँ कि क्या कुछ नहीं गुज़री मुझ पर
वक़्त के हाथ ने क्या कुछ नहीं छीना मुझ से।

मेरी आवारा-मिज़ाजी ने मगर इक न सुनी
पूछता रह गया घर का पता रस्ता मुझ से।

मेरी उल्फ़त ने उसे कर दिया बे-दस्तो-पा
वो कि रखता था अदावत का इरादा मुझ से।

सामने आ के भी अब ऐसे गुज़र जाता है
जैसे उसका न कभी था कोई रिश्ता मुझ से।

और तन्हाई से क्या मिलता ब-जज़ खोफ़ा-हिरास
पहरों रोता रहा मिल कर मेरा कमरा मुझ से।

आश्ना मेरी हक़ीक़त से जो होना चाहो
बे-इरादा कभी आकर मिलो 'तन्हा' मुझ से।