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नाचघर / दिनकर कुमार
Kavita Kosh से
नाचघर में घुटन का माहौल है
बासी सँगीत की धुन पर नाचती
नर्तकी थकी-थकी-सी है
पीली रोशनी मध्यम है
नर्तकी बीमार सी लग रही है
नाचघर में तम्बाकू का धुआँ फैला हुआ है
वे जो दर्शक हैं उनके चेहरे
एक जैसे सपाट हैं
वे रिक्शा खींचने वाले मज़दूर हैं
या दफ़्तर के बाबू हैं
नाचघर में जिस्म की गन्ध है
वे जो रुपए फेंक रहे हैं
वे गोश्त को चबा रहे हैं
नर्तकी के शरीर के गोश्त की
निगाहों से माप-तौल कर रहे हैं
नाचघर में विषाद का माहौल है
ज़िन्दगी की शाम काटने वाले
दर्शकों का मन नाच में नहीं
घर में सुलग रहे चूल्हे
और भूखे बच्चों पर टिका हुआ है