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नाचती हुई नींद / प्रेरणा सारवान
Kavita Kosh से
कभी चाँद को
तोड़ लाने की चाह में
छत पर खड़े बच्चे की
मुठ्ठी से छूट कर
जमीं पर नीचे गिर कर
नाचते हुए सिक्के की नोंक पर
नाचती हुई
एक पल में काँच के प्याले की तरह
गिर कर
बिखर जाती है नींद ।
कभी आधी रात को
गलियों में बुरी आत्माओं के साथ
रोते हुए कुत्तों के पास जाकर
प्रेत लगी लड़की की तरह
बाल बिखेरे बैठ जाती है नींद।
मैं बैठी गिनती हूँ अपने दिल की
एक-एक धड़कन और
वक़्त का एक-एक पल।
तब रात के आख़िरी पहर
चुपचाप लौट आती है नींद।
मैं किसी अज़नबी की तरह
नज़र उठाकर देखती हूँ बस,
और मेरे पहलू में आकर
सो जाती है नींद।
ये क्या रिश्ता है जो
नींद के आग़ोश में सो जाता है दर्द
दर्द के बिस्तर पर सो
जाती है नींद।