भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाज़ो-अदा वो अपनी कैसी दिखा रहा है / देवी नांगरानी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाज़ो-अदा वो अपनी कैसी दिखा रहा है
बेपर की शोख़ियों में उड़ता ही जा रहा है

वो मुस्करा रहा है कलियों के होंठ छूकर
झोंका हवा का देखो क्या गुल खिला रहा है

हर चाल में है सौदा, हर चीज़ की है क़ीमत
रिश्वत का दौर अब तो दुनिया चला रहा है

पहचान आज पूरी होकर भी है अधूरी
चहरा बदल के आदम उलझन बढ़ा रहा है

बरसों की वो इमारत अब हो गयी पुरानी
करके वो रंगो-रौग़न उसको सजा रहा है

बुझते चराग़े-दिल में, किसने ये जान डाली
फिर से हवा के रुख़ पर ये झिलमिला रहा है

अपना ही अक्स ‘देवी’ देखूँ तो मान भी लूँ
आईना अक्स मुझको तेरा दिखा रहा है.