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नाटक / सुभाष राय

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माना कि मिट्टी में प्राण है
सूरज रोज़ धूप उलीच जाता है खेत में
हवा इतनी है कि अँकुर फूट सकते हैं

माना कि मिट्टी, धूप और वायु
तना, पत्ती और फूल में
तबदील हो सकते हैं

माना कि मौसम अचानक ख़राब न हो तो
फ़सलों में दाने आ सकते हैं
एक दाना हज़ार दानों में बदल सकता है

माना कि कुछ भी हो सकता है
अगर मिट्टी में डाला गया बीज ठीक-ठाक हो
लेकिन अक्सर ऐसा क्यों नहीं होता

जब फ़सलें खड़ी होती हैं, हम ख़ुश होते हैं
कटती हैं तो हम निराश हो जाते हैं
आदमी की भूख बढ़ जाती है हर फ़सल के बाद

हम कभी मौसम को दोषी
ठहराकर चुप हो जाते हैं
कभी खेत बाँट लेते हैं