भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नाथ! थाँरै सरणै आयो जी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

नाथ! थाँरै सरणै आयो जी।
जचै जिस तराँ खेल खिला‌ओ, थे मन-चायो जी॥
बोझो सभी ऊतर्‌यो मनको, दुख बिनसायो जी।
चिंता मिटी, बड़े चरणाँको स्हारो पायो जी॥
सोच-फिकर अब सारो थाँरै ऊपर आयो जी।
मैं तो अब नि्‌स्चिंत हुयो अंतर हरखायो जी॥
जस-‌अपजस सब थाँरो मैं तो दास कुहायो जी।
मन भँवरो थाँरै चरण-कमलमें जा लिपटायो जी॥