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नाथ, हमर नाम मिटाँ देवऽ तूँ जहिया / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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नाथ, हमर नाम मिटा देबऽ तूं जहिया
आपन गढ़ल सपन से होके मुक्त
जनम हम तहरा में ले लेहब तहिया।
तहरा हाथ के लिखल लेख मिटा के
हम अपना नाम के रेखा खीचऽ तानीं।
अइसन भयंकर विपदा में
भला ई जिनगी कब ले चली?
सभकर सिंगार चोरा के
हम अपने के सजावे चाहतानीं।
सभकर स्वर दबा के
हम अपने स्वर बजावे चाहतानीं।
हमार आपन नाम जब नष्ट हो जाईं
तबहीं तहार नाम हमरा मुँह से आई
तबहीं हम बिना नाम के परिचय देले
सभका संगे बिना संकोच के मिल सकब।