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नाद के समुद्र में / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल
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ये जरूरी नहीं
कि हर बार
तुम्हारी ध्वनि-तरंगो की ओर
कदम बढ़ा दूँ
ये भी जरूरी नहीं
कि ऊँचे भवनों,
शोर की मीनारों को भेदकर आती
तरंगो को ग्रहण करता रहूँ
एक अनाम पीड़ा
बजती रहती है भीतर निरंतर
बहाकर ले जाने के लिए
नाद में समुद्र में
तरंगों को थपथपाना
लगता है लोरी-सा
उनींदा-सा बहता जाता हूँ
खुलने पर आँख
खुद को तुम्हारे पास पाता हूँ
ये जरूरी नहीं
कि पहुँच जाऊँ समूचा
चलने की जगह पर भी
बचा रहता है कुछ
दबोच रखा है जो
किसी ने मुट्ठी में
वहाँ से यहाँ तक
एक तार-सा खिंच जाता है
जिसे हर कोई छू देता है
ये आलाप
कौन भरता है बार-बार
ये कौन-सा राग है
जो बार-बार
अधूरा छूट जाता है।