नामविश्वास 
(65) 
स्वारथको साजु न समाजु परमारथको, 
मोसो दगाबाज  दूसरो न जगजाल है । 
कै न आयों , करौं न करौंगो करतुति भली , 
लिखी न बिरंचिहूँ भलाई भूलि भाल है। । 
रावरी सपथ, रामनाम हिी की गति मेंरे, 
इहाँ झूठो सो तिलोक  तिहूँ काल है। 
तुलसी को भलो पै तुम्हारें ही किएँ  कृपाल, 
कीजै न बिलंबु बलि, पानीभरी खाल है।। 
(66) 
रागको न साजु, न बिरागु, जोग जाग जियँ,
 काया नहिं छाड़ि देत ठाटिबो कुठाटको। 
मनोरातु करत अकाजु भयो आजु लगि, 
चाहे चारू चीर, पै लहै न टुकु टाकरो।। 
भयो करतालु बड़े क्रूरको कृपालु , पायो, 
नामप्रेमु-पारसु , हौं लालची बराटको। 
‘तुलसी’ बनी है राम! रावरें बनाएँ, 
ना तो धोबी-कैसो कूकरू न घरको , न घाटको।।