नाराज़गी / निमिषा सिंघल
जब नाराज़ हो जाती हो
तुम
बैचेन हो जाता हूँ मै।
तारों बिन
उदास आसमान सा।
जैसे सूर्य की लालिमा पर मंडराया हो काला बादल।
जैसे काली कजरारी आंखों से बह निकला हो काजल।
जैसे भरभरा के फट पड़ा हो बादल।
वह प्यारी सुबकियाँ
जान कर
मुझे सुनाते वक्त,
जैसे भर गया हो समुंद्र
तुम्हारी आंखों में
तैरने लगे हों सीप
निकल पड़े हो बेशकीमती सफेद मोती
और फिर बह निकले हो तुम्हारी आंखों से।
चुपचाप कनखियों से मुझे निगाह बचा कर देखना फिर
नाराजगी से पीठ फेर कर बालों को इस अंदाज़ में झटकना की मेरे चेहरे से टकरा जाए।
फिर मेरा बनावटी क्रोध दिखाना
जैसे तुम्हारे जलते हृदय को मलहम मिल गया हो।
चेहरा पढ़ने की कला में माहिर हो तुम।
मेरी हंसी देखी तो
त्योरियाँ चढ़ा ली
और देखा क्रोध
तो ख़ुद ही सिमट कर बाहों में समा गई।
मुझे पसंद है तुम्हारा
रूठी हुई हंसी हंसना
और उससे भी अधिक पसंद है तुम्हारा शिकायती आंखों से मुझे देखना और मुझ में समा जाना।