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नारीक दशा-दिशा / नारायण झा
Kavita Kosh से
एतेक दिनसँ कुहरि-कुहरि
चालि चलै छलहुँ कानि
आब उड़बै पाँखि सजा कए
नारी हमसभ, छाती तानि
जागि गेल हमरो अभिलाषा
बात हमर लिअय जानि
तोड़ि तरेगन आनब नभसँ
हेतै हमरो सभहक मानि
चन्द्रलोकमे पहुँचिकए हमहूँ
खायब अन्न चान पर रान्हि
मंगल ग्रह नै हएत अमंगल
लए बढबै, हम मनमे ठानि
कते कुहरलौ आ किकियेलौ
खाइत रहलहुँ नून-तेल सानि
भोग लगेबइ खुआ-मलीदा
पीबै फ्रीजक ठंडा पानि
देहक नुआ एना पहिरबै
नै लगतै किनको अपग्रानि
दैहिक आजादी सीमे भीतर
नै करबै किनको बेपानि
हीरा-मोती-पन्ना बिछि-बिछि
घरमे संग्रह करबै आनि
देशक सीमा हमहुँ ओगरबै
प्रहरी बनबै हमहुँ फानि।