नारी चेतना / शशि पाधा
न समझे मुझे अब कोई निर्बला
शक्ति रूपा हूँ, नारी हूँ मैं वत्सला।
कोमलाँगी हूँ, अबला न समझे कोई
न धीरज की सीमा से उलझे कोई,
मन की कह दूँ तो पत्थर पिघल जाएंगे
चुप रहूँ तो विवशता न समझे कोई ।
न मैं सीता जिसे कोई राम त्याग दे
न मैं द्रौपदी जिसे दाँव में हार दे ,
न मैं राधा जिसे न ब्याहे कृष्ण
मैं हूँ मीरा जो प्रेम का दान दे ।
अपने कंपन से पर्वत कँपा दूंगी मैं
शीत झरनों में अग्नि जला दूंगी मैं,
आज सूरज को दीपक दिखा सकती हूँ
चांद निकले तो घूंघटा उठा दूंगी मैं ।
मैं नदी हूँ, किनारा तोड़ सकती हूँ
बहती धारा का मुख मोड़ सकती हूँ,
जी चाहे तो सागर से मिल लूंगी मैं
जी चाहे तो रास्ता छोड़ सकती हूँ।
मैं धरा हूँ, मैं जननी, मैं हूँ उर्वरा
मेरे आँचल में ममता का सागर भरा,
मेरी गोदी में सब सुख की नदियाँ भरीं
मेरे नयनों से स्नेह का सावन झरा।
दया मैं , क्षमा मैं , हूं ब्रह्मा सुता
मैं हूँ नारी जिसे पूजते देवता ।