नाविक-छाया / दिनेश कुमार शुक्ल
निर्जन दोपहरी के तट पर बिखरा-बिखरा
सागर से भी अधिक पुराना है यह पत्तन
यहीं गिराते थे लंगर जलयान अथक-अन्वेषण वाले
अब भी जब-तब आ लगते इस घाट जहाज़ी
किसी अजन्मी और भविष्यत् में डूबी
अपनी दुनिया की राह खोजते
भरी दुपहरी के तट पर मलबे-सी बिखरी
पृथ्वी से भी अधिक पुरानी है यह नगरी
देख रही है अपने ही प्रतिबिम्ब
कॉंपती गर्व हवा के माया-जल में
तूफ़ानों के बियाबान में ध्वस्त नगर का दुर्ग
बुर्ज को पीस चुकी है बरगद की जड़
टॅंगा हुआ है निराधार मिहराब-ईंट का चॉंद
गोह की लपलप करती जीभ
चाटती शिलालेख को
टूटी हुई कमन्द आज तक झूल रही है कंगूरे से
यह दुपहर का दुर्ग
दुर्ग के सिंहद्वार पर
भुजा उठाकर एक भटकती नाविक-छाया
रोक रही है पटाक्षेप को
बुला रही है लुप्त हो चले खग को, मृग को
लतापत्र को, स्पन्दन को
लुप्तप्राय मानव-प्रजाति को बुला रही है
बुला रही है छाया की ध्वनि,
ध्वनि की छाया
निर्जल सागर, निर्जन नगरी
सिर्फ़ अलविदा जैसी कोई जल की चिड़िया
कहीं दूर फड़फड़ा रही है निपट अकेली
मृगमरीचिका की लहरों तक
सिर्फ़ नमक ही नहीं
हवा में जाने क्या-क्या
और बहुत कुछ मचल रहा है
जिसे देख मुस्करा रही है नाविक-छाया।