भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
नाव बनाओ / हरिकृष्णदास गुप्त 'हरि'
Kavita Kosh से
नाव बनाओ, नाव बनाओ,
भैया मेरे जल्दी आओ।
वह देखो पानी आया है,
घिर-घिरकर बादल छाया है,
सात समंदर भर लाया है,
तुम रस का सागर भर लाओ।
पानी सचमुच खूब पड़ेगा,
लंबी-चौड़ी गली भरेगा,
लाकर घर में नदी धरेगा,
ऐसे में तुम भी लहरओ।
ले आओ कागज़ चमकीला,
लाल-हरा या नीला-पीला,
रंग-बिरंगा खूब रंगीला,
कैंची, चुटकी हाथ चलाओ।
नाव बनाकर बढ़िया-बढ़िया,
बैठाओ फिर गुड्डे-गुड़िया,
चप्पू थामे नानी बुढ़िया,
बहती गंगा चाल दिखाओ!
-साभार - वीणा के गीत, सं. राष्ट्रबंधु, 1967