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नाव में अकेला / बाजार में स्त्री / वीरेंद्र गोयल

हर बार
तुम्हें लाद लिया जाता रहा
विलुप्त प्रजाति की
आखिरी निशानी की तरह
चाहे उस वक्त
तुम मनुष्य ही क्यों न थे
स्मृतियाँ साथ नहीं देतीं
या शायद हम उन्हें देख नहीं पाते
कितना मुश्किल है
चाबी को ढूँढना
सिर्फ अतीत को देखने के लिए
अंतहीन है जो भविष्य की तरह
कहाँ से आये होने की जिज्ञासा
शांत होने की बजाय
कहाँ पर जाने में बदल जाती है
ये बाद की बात है कि मैं कौन हूँ
अगर जान लें खुद को
तो नष्ट हो जाती हैं स्मृतियाँ
तो नष्ट हो जाता है जीवन
फिर लौटकर नहीं आता।