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नाव / केशव
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					सूरज जो कभी उगता था हमारे लिये
तोड़ देग़ा दम 
हमारी आँखों में 
वक्त के रेलिंग पर झुके
हम रह जाएंगे देखते 
आएना चटख जायेगा
बढ़ जायेगा शोर 
	स्मृतियों की गुफा में
डूब जायेगी क्षनों की नब्ज़ की
		धड़कन
बच जायेंगे हमारे पास
	एक दूसरे के चित्र
जिन्हें एलबम में लगाकर 
पहुँच जायेंगे हम फिर 
शुरूआत की कग़ार पर
जहाँ कोई नहीं होगा
हमें जानने वाला
बगल में स्मृतियों का थैला दबाए
ढूँढते रहेंगे हम
कगार के नीचे बहती 
	नदी का किनारा
जिस पर रेत में कहीं गहरे 
धँसी हमारी कश्ती 
कभी नहीं मिली 
बावजूद बार- बार कगार पर
		पहुँचने के भी
 
	
	

