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ना घर तेरा, ना घर मेरा / हरीश भादानी

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ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुब थमने तक का डेरा !


    इस डेरे के भीतर बीहड़
    कांटें और उगाएँ बाहर
    भीतर के काँटों से छिल-छिल
    बाहर आ सुखियाया चाहें,


लागे बाहर तो चिरमी भर
हो ही जाए वह विंध्याचल
खाय झपाटे समझ सूरमा
थकियाये भीतर जा दुबकें


    दुबके-दुबके बुनें जाल ही
    फैंके चौकस बन बहेलिये
    कटे, कभी तो उड़ ही जाए
    आखी उमर चले यह फेरा !


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुब-डुब थमने तक का डेरा !


    इस फेरे को देखे ही हैं
    क्या लेकर आता है काई
    फिर भी हर-हर लगे मांडता
    जमा-नाव के खाते-पाने


पोरें घिस-घिस गिनता जाए
ज्यू-त्यूं जुड़ें नफे का तलपट
यह तलपट हो जाय तिजूरी
यूँ-व्यूँ नापे, तोले-जोखे


    ऐसे में ही साँस ठहरले
    सीढ़ी झुक हो जाय बिछौना
    आ ! मैं-तू दोनों ही देखें
    क्या ले जाए साथ बडेरा ?


ना घर तेरा, ना घर मेरा
लुबडुम थमने तक का डेरा !


    जाते बड़कों की जमघट में
    अनदेही होकर भी देही
    चौराहों पर बोल बोलते
    दिखें कबीर, शिकागो-स्वामी,


इन दोनों का कहा बताया
इनसे पहले कई कह गए
सुना, अनुसना करते आए
करते ही जाए हैं अब भी


    पर एकल सच इतना-सा ही
    सबका होना सबकी खातिर
    इस सच का सुख सिर्फ यही है
    और न कोई डैर-बसेरा !
ना घर तेरा ना घर मेरा
लुबडुब बसने तक का डेरा !