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ना पूछलीं तहार नाम / रवीन्द्रनाथ ठाकुर / सिपाही सिंह ‘श्रीमंत’

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ना पूछलीं तहार नाम
ना पूछलीं तहार धाम।
ना लागल तहरा से भय
ना लागल तहरा से लाज।।
जिनगी बहत रहल हमार
जानूं उछाह का चंचल तरेगन पर
आनंद का अशांत लहरन पर।।
भोरे-भोरे
ना जानीं जे कतना दफा
तूं हमरा के पुकरले होखबऽ
तूं हमरा के जगवले होखबऽ
जानूं तूं हउअ हमार आपन सखा,
संगे-सथे खेले वल लभेंगोटिय यर।
ना जानीं जे कतना दिन,
जे कतना बन-बनभेंत मेभें
तहरा साथे हँसत-खेलत
हम छुट्टा होके घुमल बानीं
छुट्टा हो के फिरल बानीं
घूमल फिरल बानीं, घूमल-फिरल बनीभें।
आरे ओह घड़ी
जवन गीत सब तूं गवलऽ
ओकर अर्थो होला ई के सोचल?
खाली ओकरा सुर में सुर मिलाके
गा उठल रहे हमार प्राण,
नाच उठल रहे हमार हृदय,
जानूं आनंद में अशांत होके
आनंद में आंदोलित होके।
अब जब खेला बंद भइल,
तहरा संगे चलल खेल
जब शेष भइल
त अचके में का देखऽ तानीं-
कि आकाश स्तब्ध बा,
चान सुरुज निःशब्द बा,
संपूर्ण संसार, सगरी सृष्टि
तहरा चरनन पर
अपना आँख झुकवले
एकांत शांत खड़ा बा।