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निकले / साहिल परमार
Kavita Kosh से
जितने बाहर हैं उसी से बहुत अन्दर निकलें
मिले जो तेरी नज़र एक समन्दर निकले
हम बरसते रहें बादल की तरह जी भर के
खेत माना था जिन्हें वो भी तो बंजर निकले
दिखाई देते हैं खिदमत में आज कल उनकी
जुबाँ से राम नहीं सैंकड़ों खंजर निकले
मसीहा मान के पूजा था हम ने कल जिन को
वो फ़रिश्ते नहीं, इन्साँ नहीं, बन्दर निकले
पाँव मज़बूत हों कितने ही मगर कल ‘साहिल’
चींटी के जिस्म में से रुहे सिकन्दर निकले
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार