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निकहत-ए-जुल़्फ को हम-रिश्ता-ए-जाँ कहता हूँ / 'रविश' सिद्दीक़ी
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निकहत-ए-जुल़्फ को हम-रिश्ता-ए-जाँ कहता हूँ
होश आता है तो ख़्वाब-ए-गुज़राँ कहता हूँ
दर्द को दौलत-ए-साहब-नज़राँ कहता हूँ
ग़म को सरमाया-ए-ईसा-नफ़साँ कहता हूँ
कोई समझे कि न समझे मगर ऐ शम-ए-हरम
मैं तुझे शोला-ए-रूख़्सार-ए-बुताँ कहता हूँ
क़तरा दरिया है तो क्यूँ शोरिश-ए-दरिया-तलबी
हर तमन्ना को मोहब्बत का ज़ियाँ कहता हूँ
है वो आवाज़-ए-शिकस्त-ए-दिल-ए-गीती जिस को
जरस-ए-क़ाफ़िला-ए-उम्र-ए-रवाँ कहता हूँ
तोहमत-ए-सब्ज़ा-ए-बेगाना है संग-ए-बेदाद
मैं तो काँटों को भी फूलों की ज़बाँ कहता हूँ
कौन समझेगा मिरे हुस्न-ए-यक़ीं का आलम
अर्श ओ तूबा को हिजाबात-ए-गुमाँ कहता हूँ
बंदा-ए-ख़ाक-नशीनान-ए-मोहब्बत हूँ ‘रविश’
ख़ाक को मसनद-ए-आशुफ़्ता-सराँ कहता हूँ